Wednesday, January 28, 2009

तड़प -तड़प मन बोल रहा...

तडप -तडप मन बोल रहा है



प्रियतम मेरे आ जाओ



जीना पल-पल कठिन हुआ है


थोडी आस दिला जाओ

आश्वासन दे कर ही ख़ुद को

जीवन पथ पर बढती हूँ

यादों में ही तुम्हे देख कर

दुनिया के संग चलती हूँ

आज थका मन बिखर रहा है

बांहों में सिमटा जाओ

तड़प -तड़प मन बोल रहा है

प्रियतम मेरे आ जाओ

जीना पल -पल कठिन हुआ है

थोडी आस दिला जाओ


मन के पार घने वट हो तुम


प्रेम बेल मैं लिपटी हूँ ,


कलियाँ फूल चटकते उनपर


खुशबू से मन भरती हूँ ,


आज लुटा है मन का सौरभ


बन परागकण छा जाओ


तड़प- तड़प मन बोल रहा है


प्रियतम मेरे आ जाओ,


जीना पल-पल कठिन हुआ है


थोडी आस दिला जाओ


एक घूंट अमृत का पीकर


विश्व ह्रदय में प्रेम भरू,


तुम्हे स्वयम में जी कर पलभर


दुनिया की तृष्णा हर लूँ ,


आज जला मन प्राण तृषा से


बन अमृत धार नहला जाओ


तडप -तड़प मन बोल रहा ....

स्तुति नारायण















Saturday, January 24, 2009

" कविता मैं स्वांत : सुखाय लिखता हूँ "


डा कुमार विश्वास
---- स्तुति
कविता लिखना कब शुरू किया ? आपकी पहली कविता का विषय क्या था ? किस पत्रिका में छपी ?

कुछ ठीक से याद नही ,१९८४ से लिखना शुरु कर दिया था उस वक्त मुख्यत : देश भक्ति वाली कवितायें लिखी पहली कविता 'दैनिक प्रभात 'में १९९६ में छपी थी इसका शीर्षक था 'तुम '

आप क्यों लिखते हैं ?

कविता मैं स्वांत : सुखाय लिखता हूँ मेरे अपने संतोष के लिए

रचना प्रक्रिया के विषय में बताएं

जब कभी दुनिया की आप-धापी और भीड़ -bhad से ख़ुद को अलग करने का मौका मिलता है तो दिल की बेचैनी अंतर्जगत में आकर लेने लगती है

वस्तु और शिल्प में किसे प्रमुखता देते हैं ?

मैं वस्तु को प्रमुख मानता हूँ

कविता की भाषा कैसी होनी चाहिए ?

कविता की भाषा कविता के kendriy bhaw को spasht और sahaj dhang से sampreshit करने वाली होनी चाहिए

आपको क्या लगता है किन khasiyton की wajah से yuwaon के एक बहुत bare warg द्वारा aapki कविता पसंद की jati है

जिस gramy और kasbai jiwan को जिया है ,मेरा bhawjagat उसी के anurup है यहाँ प्रेम sambndhon me आज भी bhawnayen प्रबल हैं प्रेम को sampreshit करने के tarike भी shahron से अलग है inhi bhawon की सहज सरल abhiwykti को लोगों ने swikar कर लिया ,बस

कहा जा रहा है कि कविता दिन-ब-दिन दुरूह होती जा रही है ,जिससे आम लोग इससे जुर नही पा रहे हैं आपका क्या मानना है

ने 'मुक्त छंद' की बात की ,जो भाव की व्यापक अभिव्यक्ति के लिए था, कहीं से भी कविता के भीतरी लय को बाधित करने के लिए नहीं था लेकिन आगे चलकर इसे ही छंद मुक्त करते हुए बिलकुल गद्यात्मक स्वरूप प्रदान कर दिया गया और लाय्विहिनता की ओर बढती हुई कविता दुरूह होती चली गई
क्या लेखन को आप सामाजिक दायित्व मानते हैं ?

अगर सामाजिक दायित्व या किसी भी तरह की प्रतिबद्धता रचनाकार पर ऊपर से थोपी जाये तो कविता पोस्टर या प्रचार बनकर रह जायेगी स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति ही 'परिस्थिति चक्र में खो चुके मनुष्य के अन्दर के देवत्व को जगा सकती है

लेखन के कारण क्या आपको व्यक्तिगत जीवन में कभी किसी संघर्ष का सामना करना पड़ा?

(थोडा हस्ते हुए )जिनका कहन अलग होता है ,उन्हें भी रहन दुनिया के हिसाब से ही रखना पड़ता है इसलिए संघर्ष तो होगा ही यही रचनाकार के स्वप्न जगत और यथास्थिति के बीच का संघर्ष है ,जिससे कविता जन्म लेती है

कविता की आलोचना और आलोचकों के बारे में आपकी क्या राय है ?आलोचना srijanaparak न रहने दे कर व्यक्तिपरक बना दिया गया है ,जो मेरे हिसाब से आलोचना विधा के विकास में बाधक है

प्रेम की अवधारणा क्या है ?

आत्मतत्व का विस्तार ही जीवन है, इसलिए प्रेम जीवन का केन्द्रीय भाव है मानवता ,राष्ट्रीयता ,वात्सल्य ,भक्ति अनेक रूपों में यह हमारे जीवन में रहता है और समय तथा परिस्थिति के हिसाब से इसका स्वरूप हमारे ही अन्दर बदलता रहता है
स्तुति नारायण
सब एडिटर ,सीनियर इंडिया

Monday, January 19, 2009

ईश्वर साथ है...

क्षितिज था दूर ,
पंख लगे अरमानो में ,
धरती छोड़ने की तमन्ना रंग लाई,
रोक नही सकते मुझे दीवार, chhat, पेड़, पहाड़
और नजरों की चुभन ,
बाल भी बांका नही कर सकता
इंसानी मन ,
क्योंकि इन्सान ही वह हैवान है
जिसने तोडे हैं कई -कई अरमानो के पंख,
बनाने को और भी चटकीले
अपने सपनो के रंग
अब और नही कर सकता ये
मेरे अरमानो के साथ छेड़खानी ,
क्योंकि मेरे सपनो में भर देने के लिए
इन्द्रधनुष के सातों रंग ,
मेरा ईश्वर मेरे साथ है ,
ऐसा है मेरा अपना विश्वास

स्तुति नारायण

सब एडिटर ,सीनियर इंडिया