ढकना चाहूँ जो सर
तो पैर निकल आते हैं
जिन्दगी के उसूल कुछ ऐसे ही हैं
बनना चाहो जो परिंदा
तो शाख छूट जाती हैं ,
गर तलाश पूरी हो दिल की
जमाने में,
शाखाएँ मुट्ठी में औ
आसमा पैरों तले आते हैं
स्तुति नारायण
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साहित्य के सभी रसानुरागियों के लिए......................... साहित्य समाज का दर्पण है और समाज का उचित दिशा निर्देश करना इसका उद्देश्य , साथ ही सुहृदय पाठकों को रसास्वादन का आनंद देने के लिए अपने हृदय की दिव्य भावनाओं को शब्दों में पिरोकर उनके हृदय में रस का उद्रेक करवाना साहित्यकार की जिम्मेदारी भी है।
2 comments:
कविता के भाव बहुत अच्छे हैं
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
थोड़े में बहुत कुछ कह दिया है |
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