अनगढ़ उलझे भावों को
शब्दों में ढलना होगा
आज हिमालय से गंगा को
स्वयं उतरना होगा
भाव भरे शब्दों को हिमवत
आज पिघलना होगा
प्रेमपुंज को शीतल धारा
बनकर बहना होगा
आज हिमालय से गंगा को ......
बिगडे भटके पौरुष को
भावों में बधना होगा
चंचल सजग सहज नयनो को
सागर बनना होगा
इस सागर में डूब पुरूष को
पार उतरना होगा
और जगत में प्रेम सुधा फ़िर
निसृत करना होगा
उत्तम सर्जन से जगती को
पावन करना होगा
आज हिमालय से गंगा को ...
भावों की निर्झरनी को
आंखों से झरना होगा
श्रधा और समर्पण से
मानस को भरना होगा
प्रेम तत्व को आज जगत की
तृष्णा हरना होगा
सृजन और संहार बीच कुछ
अद्भुत करना होगा
आज हिमालय से गंगा को
स्वयं उतरना होगा
अनगढ़ उलझे भावों को
शब्दों में ढलना होगा
स्तुति नारायण
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3 comments:
भावों की निर्झरनी को
आंखों से झरना होगा
श्रधा और समर्पण से
मानस को भरना होगा
अति उत्तम अभिव्यक्ति साधू ....
लय और भाव दोनों शानदार है.
आज हिमालय से गंगा को स्वयं उतरना होगा की चर्चा समयचक्र में
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