हम अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र घोषित करते हैं। आजादी और उसके बाद हुए देश की तरक्की पर गर्व महसूस करते हैं लेकिन आजादी के साठ साल बाद भी हम शिक्षा को मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं कर पाए हैं, यह दुर्भाग्य की बात है।
भारत को युवाओं का देश कहा जाता है। आकलन के मुताबिक देश की जनसंख्या का 54 प्रतिशत हिस्सा 35 वर्ष से कम आयु का है। यह बात इस लिहाज से देश के उज्जवल भविष्य का परिचायक मानी जाती है कि हमारे पास काम करने के लिए ज्यादा हाथ और दिमाग मौजूद हंै। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी 54 प्रतिशत में जनसंख्या का वह हिस्सा भी आता है, जिन्हें शिक्षा उपलब्ध नहीं। जिनका बचपन श्रम के बोझ तले दबा है तथा जिन्हें उनके सपनों के स्वच्छंद आकाश से वंचित रखा गया है।
क्या देश के ये नौनिहाल जिन्हें शिक्षा का बुनियादी हक भी प्राप्त नहीं है, बड़े हो कर अपने क्षेत्र में कुशलता प्राप्त कर सकेंगे। क्या इनके भीतर पल रही संपूर्ण संभावनाओं का विकास हो पाएगा। ये वे अहम सवाल हैं जो हमें देश के उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं होने दे सकते।
पिछले दिनों लोकसभा में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2008 पारित कर दिया गया। संविधान संशोधन 2002 द्वारा एक अनुच्छेद 21(अ) संविधान से जोड़ा गया। यह अनुच्छेद राज्य को 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के लिए जिम्मेदार बनाता है। जिस देश में साक्षरता दर 65 प्रतिशत हो और लगभग 30 करोड़ की आबादी निरक्षर हो उस देश के लिए संसद में पारित यह बिल काफी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन यह विडंबना ही कही जाए कि इस विधेयक पर लोकसभा में मात्र दो घंटे ही बहस हुई। राष्ट्रीय मीडिया में भी इसकी कोई विशेष चर्चा नहीं हुई। राष्ट्रीय महत्व के इस विधेयक पर छाई खामोशी वर्तमान समय में सामाजिक सरोकारों की गिरावट का ज्वलंत उदाहरण है।
जब भी शिक्षा को मौलिक अधिकार में शामिल किए जाने की बात आती है तो ये सवाल पैदा किए जाते हैं कि इतना पैसा कहां से आएगा? रूपयों के आवंटन में केंद्र या राज्य की भूमिका क्या होगी? केंद्र यह जिम्मेदारी राज्य पर डालता है तो राज्य केंद्र पर। यह भी सवाल उठाया जाता है कि क्या हमारा देश इतने बड़े पैमाने पर गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने में सक्षम है?
जहां तक पैसों की कमी का सवाल है तो हमारे देश के पास इतना पैसा है कि इसपर होने वाले पूरे व्यय को वहन कर सकता है। अगर कुछ कमी आती भी है तो सरकार शिक्षा के मद में लगाए। हर साल अरबों रूपयों का रक्षा समझौता किया जाता है। हथियारों पर इतना खर्च करने से बेहतर है कि उन्हें शिक्षा के मद में खर्च किया जाए। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की भी बात की जाए तो केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल, नवोदय विद्यालय जैसे बेहतर उदाहरण हमारे पास हैं। इनमें पढ़ने वाले बच्चों को तमाम सुविधाएं मिल रही हैं और ये प्राइवेट स्कूल के बच्चों को टक्कर भी दे रहे हैं। बस यह क्वालिटी एडुकेशन केंदीय कर्मचारियों जैसे कुछ चुनिंदा लोगो के लिए ना हो और शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल कर लिया जाए, सरकार से जनता की यही अपेक्षा है।
स्तुति नारायण
Tuesday, August 25, 2009
Monday, August 17, 2009
भारतीय पूंजीवाद का साम्राज्यवादी मंजिल में प्रवेश
इसमें कोई दो राय नहीं कि देश तरक्की कर रहा है, हम विकास की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इस तरक्की, इस विकास में राष्ट्र को हर खासो आम के सहयोग की जरूरत है। इस दिशा में खास लोग जैसे बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक, उद्योगपति, व्यापारी, नेता आदि का सहयोग कुछ ऐसा है कि वे पूरी शक्ति से अपनी तरक्की में लगे हैं, क्योंकि उनकी तरक्की ही देश की तरक्की मानी जाएगी और आम लोग उन खास लोगों की तरक्की के लिए अपना श्रमदान देने में जुटे हैं, क्योंकि इस एवज में उनकी रोज-रोज की आवश्यकता पूरी होती है। इतना तो साफ हो चुका है कि विकास का यह समीकरण एक तरफ करोड़पतियों को अरबपति और अरबपतियों को खरबपति बना रहा है तो दूसरी तरफ सामान्य जन की स्थिति दिन-ब-दिन बदत्तर करता जा रहा है।
विचारणीय बात यह है कि पूंजीवाद की दिशा में पहली दूसरी सीढ़ियां चढ़ता हुआ भारत आज साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश कर चुका है और यह सफर उसने देश के उस बड़े समूह के सहयोग से तय किया जिनके हाथ इस विकास से कुछ भी नहीं आना था, ना आया और ना ही आगे आने वाला है। यह भी निश्चित है कि इनके सहयोग के बिना तथाकथित विकास की यह यात्रा देश के लिए न कभी संभव थी न आगे होगी। इसलिए कहा जा सकता है कि पूंजीवादी विकास की इस बहुमंजिली इमारत की नींव, दिनोंदिन बदत्तर स्थिति को प्राप्त हो रहे आम जन ही है। अब इस पक्ष को भोला कहा जाए या बेवकूफ इसके लिए इसकी भीतरी सच्चाइयों पर गहरी निगाह डालनी होगी तभी उससे पैदा हुए सवालों का हल ढूंढ़ने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास संभव हो पाएगा।
औपनिवेशिक शासन के चक्र में फंसे भारत के तत्कालीन क्रांतिकारियों और विचारकों ने जनमानस में परिस्थितियों के प्रति जागरूकता लाकर उसी जन शक्ति की मदद से देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करा लिया। और तब शुरू हुआ राष्ट्र को जिन नीतियों पर चलना था उसके निर्माण का क्रम। यही नीतियां देश के विकास की दिशा तय करने वाली थी। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से शासन और सत्ता को प्रभावित करने वाले या यों कहें कि इससे लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा जब नीतियां निर्धारित की जा रही थीं तो सामान्य जनों के हितों से जुड़े कुछ ऐसे नीति और नियम जरूर बनाए गए जो जनसामान्य की आंखों के आगे भ्रम जाल फैलाने के लिए काफी थे शिक्षा का प्रसार, निम्न जातियों का उत्थान, औद्योगिक विकास, बैंकों व वित्तीय संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण आदि शुरू-शुरू के कुछ ऐसे मुद्दे थे जिससे आम जनता का भी सरोकार था। इससे भुलावे में आ गए आम जनों को यह नही समझ आ सका कि प्रत्यक्ष तौर पर उनके द्वारा उनके लिए बनी ये सरकार जो सुधारवादी नियम और जनकल्याण कारी योजनाएं तैयार कर रही है वह वास्तव में आगे चलकर भूस्वामियों को उद्योग और व्यापार की दिशा में ज्यादा से ज्यादा आगे बढ़ाने में ही सहायक होगा। भू एवं संसाधनों का राष्ट्रीयकरण करके राष्ट्र की भलाई के नाम पर उन हाथों में सौंपा जाएगा जिनका अर्थतंत्र एवं राजतंत्र में वर्चस्व है। इस तरह धीरे-धीरे सबकुछ ठीक होने के इंतजार में भोली जनता देश को अपनी श्रम शक्ति का सहयोग देती रही और खास समर्थ पूंजीपति वर्ग समय के साथ ज्यादा से ज्यादा संपत्तिवान और सामर्थ्यवान होता चलता गया। फिर सामान्य जन और पूंजीपति वर्ग के बीच की खाई दिनों दिन चौरी होती चली गई और अपनी बढ़ती पकड़ की बदौलत ये पूंजीपति वर्ग मेहनत कश्त आम जनता को हर स्तर पर अपनी स्थिति से समझौता करने के लिए मजबूर करता चला गया। सरकार द्वारा ऐसे बजट और नियम बनाए जाने लगे, जो टैक्स आदि के माध्यम से जनता की गाढ़ी कमाई से भरे सरकारी खजाने का मुंह इन पूंजीपतियों के लिए खोल सके। इतना ही नहीं देश की जरूरतों के नाम पर लिए गए कर्ज का लाभ तो ये पूंजीपति वर्ग उठाता लेकिन उसका बोझ मंहगाई के माध्यम से जनसामान्य के कंधों पर डाल दिया जाता।
अब सवाल यह उठता है कि सन् 1947 के पहले जिस एक मुद्दे पर संपूर्ण भारतीय जनमानस एक था कि ‘देश को अंग्रेजों से मुक्त कराना है’ वह मुद्दा ज्वलंत बने रहने के लिए किस वर्ग से सबसे अधिक शक्ति पा रहा था। या यों कहें कि देश का अंग्रेजों द्वारा दोहन किया जाना, कच्चा माल यहां से ले जाना और तैयार माल की यहां खपत करना व्यावाहारिक तौर पर जिसके लिए सबसे अधिक पीड़ादायक था, वे ज्यादा से ज्यादा जमीन पर मालिकाना हक रखने वाले लोग कहीं न कहीं से अपनी इस पीड़ा को आम मेहनतकश लोगों की देशभक्ति की भावना से जोड़कर उसका विस्तार कर रहे थे। आजादी का मुद्दा जहां गरीबी के कारण जलालत झेल रहे मजदूर, मेहनतकशों और छोटी जोत वाले किसानों के लिए उनकी रोजमर्रा की कठिनाइयों से छुटकारा पाने का सपना था वहीं बड़े जमींदारों के लिए अपनी संपत्ति, शक्ति और सामर्थ्य बढ़ाने के मार्ग को निष्कंटक करने का प्रयास। सपनों में डूबे आमजन ये नहीं समझ पाए कि आजादी के बहाने हो रहा सत्ता का यह हस्तांतरण उन्हें और भी गहरी नींद सुलाने के लिए है जिससे वे सपने भी ना देख पाएं। जो लोग वास्तविक स्थिति को समझ पा रहे थे उनकी पंूजीपतियों के आगे एक नहीं चली क्योंकि इस वर्ग को जहां औद्योगिक क्रांति बहुत पहले हो चुकी थी, उन समर्थ देशों का भीतरी सहयोग प्राप्त था, क्योंकि इनके स्वार्थ एक थे। अब नियम, कानून, सरकार सबकुछ वैसा ही होना था जो इनकी दिन दूनी रात-चैगुनी प्रगति में सहायक हो तथा सामान्य जन को भी लालच, भ्रम, उत्कोच डर आदि के सहारे इनकी दिशा और गति के अनुकूल बनाए रखे। देश के विकास का नेतृत्व करने वाला, प्रगति पथ पर अग्रसर यह पूंजीपति वर्ग प्रतिकूलताओं को दबाता तथा उसकी अनदेखी करता हुआ अब साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश कर चुका है। दुनिया के सामर्थ्यवान लोग अपने संप्रभुता संपन्न देशों की सीमा लांघकर एक मंच पर खड़े हैं लेकिन उनके बीच की प्रतिद्वंदिता बरकरार है। इनकी यह प्रतिद्वंदिता पूंजी का अधिक से अधिक केंद्रीकरण करके आर्थिक तौर पर सशक्त और समर्थ होने की है। वे विदेशी कंपनियों का हमलावर तरीके से अधिग्रहण करने और पूंजी की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए अपनी सामरिक शक्ति को बढ़ाने में लगे हैं तथा इसके साथ ही देश के अंदर दबी और शोषित मेहनतकश जनता में असंतोष के कारण पनपने वाले आक्रोश को कुचलने के लिए पुलिसिया तंत्र और अर्द्धसैनिक बलों को भी सशक्त और मजबूत रखना चाहते हैं।
यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि जीवन में अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुसार शक्ति और सामथ्र्य की वृद्धि तो किसी के लिए अनुचित नहीं बल्कि सहज और सामान्य है। किंतु कोई भी वृद्धि या बढ़ोत्तरी जबतक समाज के सबसे कमजोर तबके से लेकर ऊपर तक के लिए कल्याण कारी नहीं तब तक उसे उचित नहीं माना जा सकता है। किसी भी सामर्थ्यवान की प्रगति उसी मात्रा में उचित मानी जा सकती है जिस मात्रा में वह संपूर्ण समाज के लिए कल्याणकारी है। इसके उलट साम्राज्यवादी प्रतिद्वंदिता समाज के बहुसंख्यक वर्ग के आवश्यक आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए जिम्मेदार, देश की सरकार का भी अपने विकास के लिए हथियार की तरह उपयोग कर रही है। तथा आमजन की मेहनत और श्रम की नींव पर साम्राज्यवाद की बहुमंजिली इमारत खड़ी की जा रही है। इस नींव के हिलते ही यह इमारत गिरकर ध्वस्त हो सकती है लेकिन अब यह नींव हिलेगी तब जब मेहनतकश जनता को कोई ऐसा समर्थ पक्ष मिलेगा जो पूरे समाज के वास्तविक विकास के लिए कटिबद्ध दिखाई पड़ेगा। तवे से निकलकर चूल्हे में जाने के लिए अब यह भीतरी तौर पर जागरूक हो चुका जनमानस कतई तैयार नहीं। उन्हें उनकी मानसिक शक्ति को क्रियान्वित करने के लिए एकीकृत करने वाला कोई ठोस विकल्प चाहिए, जो दिन-ब-दिन असहाय होती जा रही परिस्थितियों में इन्हीं के बीच से उभर सकता है।
प्रस्तुति --स्तुति नारायण
विचारणीय बात यह है कि पूंजीवाद की दिशा में पहली दूसरी सीढ़ियां चढ़ता हुआ भारत आज साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश कर चुका है और यह सफर उसने देश के उस बड़े समूह के सहयोग से तय किया जिनके हाथ इस विकास से कुछ भी नहीं आना था, ना आया और ना ही आगे आने वाला है। यह भी निश्चित है कि इनके सहयोग के बिना तथाकथित विकास की यह यात्रा देश के लिए न कभी संभव थी न आगे होगी। इसलिए कहा जा सकता है कि पूंजीवादी विकास की इस बहुमंजिली इमारत की नींव, दिनोंदिन बदत्तर स्थिति को प्राप्त हो रहे आम जन ही है। अब इस पक्ष को भोला कहा जाए या बेवकूफ इसके लिए इसकी भीतरी सच्चाइयों पर गहरी निगाह डालनी होगी तभी उससे पैदा हुए सवालों का हल ढूंढ़ने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास संभव हो पाएगा।
औपनिवेशिक शासन के चक्र में फंसे भारत के तत्कालीन क्रांतिकारियों और विचारकों ने जनमानस में परिस्थितियों के प्रति जागरूकता लाकर उसी जन शक्ति की मदद से देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करा लिया। और तब शुरू हुआ राष्ट्र को जिन नीतियों पर चलना था उसके निर्माण का क्रम। यही नीतियां देश के विकास की दिशा तय करने वाली थी। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से शासन और सत्ता को प्रभावित करने वाले या यों कहें कि इससे लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा जब नीतियां निर्धारित की जा रही थीं तो सामान्य जनों के हितों से जुड़े कुछ ऐसे नीति और नियम जरूर बनाए गए जो जनसामान्य की आंखों के आगे भ्रम जाल फैलाने के लिए काफी थे शिक्षा का प्रसार, निम्न जातियों का उत्थान, औद्योगिक विकास, बैंकों व वित्तीय संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण आदि शुरू-शुरू के कुछ ऐसे मुद्दे थे जिससे आम जनता का भी सरोकार था। इससे भुलावे में आ गए आम जनों को यह नही समझ आ सका कि प्रत्यक्ष तौर पर उनके द्वारा उनके लिए बनी ये सरकार जो सुधारवादी नियम और जनकल्याण कारी योजनाएं तैयार कर रही है वह वास्तव में आगे चलकर भूस्वामियों को उद्योग और व्यापार की दिशा में ज्यादा से ज्यादा आगे बढ़ाने में ही सहायक होगा। भू एवं संसाधनों का राष्ट्रीयकरण करके राष्ट्र की भलाई के नाम पर उन हाथों में सौंपा जाएगा जिनका अर्थतंत्र एवं राजतंत्र में वर्चस्व है। इस तरह धीरे-धीरे सबकुछ ठीक होने के इंतजार में भोली जनता देश को अपनी श्रम शक्ति का सहयोग देती रही और खास समर्थ पूंजीपति वर्ग समय के साथ ज्यादा से ज्यादा संपत्तिवान और सामर्थ्यवान होता चलता गया। फिर सामान्य जन और पूंजीपति वर्ग के बीच की खाई दिनों दिन चौरी होती चली गई और अपनी बढ़ती पकड़ की बदौलत ये पूंजीपति वर्ग मेहनत कश्त आम जनता को हर स्तर पर अपनी स्थिति से समझौता करने के लिए मजबूर करता चला गया। सरकार द्वारा ऐसे बजट और नियम बनाए जाने लगे, जो टैक्स आदि के माध्यम से जनता की गाढ़ी कमाई से भरे सरकारी खजाने का मुंह इन पूंजीपतियों के लिए खोल सके। इतना ही नहीं देश की जरूरतों के नाम पर लिए गए कर्ज का लाभ तो ये पूंजीपति वर्ग उठाता लेकिन उसका बोझ मंहगाई के माध्यम से जनसामान्य के कंधों पर डाल दिया जाता।
अब सवाल यह उठता है कि सन् 1947 के पहले जिस एक मुद्दे पर संपूर्ण भारतीय जनमानस एक था कि ‘देश को अंग्रेजों से मुक्त कराना है’ वह मुद्दा ज्वलंत बने रहने के लिए किस वर्ग से सबसे अधिक शक्ति पा रहा था। या यों कहें कि देश का अंग्रेजों द्वारा दोहन किया जाना, कच्चा माल यहां से ले जाना और तैयार माल की यहां खपत करना व्यावाहारिक तौर पर जिसके लिए सबसे अधिक पीड़ादायक था, वे ज्यादा से ज्यादा जमीन पर मालिकाना हक रखने वाले लोग कहीं न कहीं से अपनी इस पीड़ा को आम मेहनतकश लोगों की देशभक्ति की भावना से जोड़कर उसका विस्तार कर रहे थे। आजादी का मुद्दा जहां गरीबी के कारण जलालत झेल रहे मजदूर, मेहनतकशों और छोटी जोत वाले किसानों के लिए उनकी रोजमर्रा की कठिनाइयों से छुटकारा पाने का सपना था वहीं बड़े जमींदारों के लिए अपनी संपत्ति, शक्ति और सामर्थ्य बढ़ाने के मार्ग को निष्कंटक करने का प्रयास। सपनों में डूबे आमजन ये नहीं समझ पाए कि आजादी के बहाने हो रहा सत्ता का यह हस्तांतरण उन्हें और भी गहरी नींद सुलाने के लिए है जिससे वे सपने भी ना देख पाएं। जो लोग वास्तविक स्थिति को समझ पा रहे थे उनकी पंूजीपतियों के आगे एक नहीं चली क्योंकि इस वर्ग को जहां औद्योगिक क्रांति बहुत पहले हो चुकी थी, उन समर्थ देशों का भीतरी सहयोग प्राप्त था, क्योंकि इनके स्वार्थ एक थे। अब नियम, कानून, सरकार सबकुछ वैसा ही होना था जो इनकी दिन दूनी रात-चैगुनी प्रगति में सहायक हो तथा सामान्य जन को भी लालच, भ्रम, उत्कोच डर आदि के सहारे इनकी दिशा और गति के अनुकूल बनाए रखे। देश के विकास का नेतृत्व करने वाला, प्रगति पथ पर अग्रसर यह पूंजीपति वर्ग प्रतिकूलताओं को दबाता तथा उसकी अनदेखी करता हुआ अब साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश कर चुका है। दुनिया के सामर्थ्यवान लोग अपने संप्रभुता संपन्न देशों की सीमा लांघकर एक मंच पर खड़े हैं लेकिन उनके बीच की प्रतिद्वंदिता बरकरार है। इनकी यह प्रतिद्वंदिता पूंजी का अधिक से अधिक केंद्रीकरण करके आर्थिक तौर पर सशक्त और समर्थ होने की है। वे विदेशी कंपनियों का हमलावर तरीके से अधिग्रहण करने और पूंजी की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए अपनी सामरिक शक्ति को बढ़ाने में लगे हैं तथा इसके साथ ही देश के अंदर दबी और शोषित मेहनतकश जनता में असंतोष के कारण पनपने वाले आक्रोश को कुचलने के लिए पुलिसिया तंत्र और अर्द्धसैनिक बलों को भी सशक्त और मजबूत रखना चाहते हैं।
यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि जीवन में अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुसार शक्ति और सामथ्र्य की वृद्धि तो किसी के लिए अनुचित नहीं बल्कि सहज और सामान्य है। किंतु कोई भी वृद्धि या बढ़ोत्तरी जबतक समाज के सबसे कमजोर तबके से लेकर ऊपर तक के लिए कल्याण कारी नहीं तब तक उसे उचित नहीं माना जा सकता है। किसी भी सामर्थ्यवान की प्रगति उसी मात्रा में उचित मानी जा सकती है जिस मात्रा में वह संपूर्ण समाज के लिए कल्याणकारी है। इसके उलट साम्राज्यवादी प्रतिद्वंदिता समाज के बहुसंख्यक वर्ग के आवश्यक आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए जिम्मेदार, देश की सरकार का भी अपने विकास के लिए हथियार की तरह उपयोग कर रही है। तथा आमजन की मेहनत और श्रम की नींव पर साम्राज्यवाद की बहुमंजिली इमारत खड़ी की जा रही है। इस नींव के हिलते ही यह इमारत गिरकर ध्वस्त हो सकती है लेकिन अब यह नींव हिलेगी तब जब मेहनतकश जनता को कोई ऐसा समर्थ पक्ष मिलेगा जो पूरे समाज के वास्तविक विकास के लिए कटिबद्ध दिखाई पड़ेगा। तवे से निकलकर चूल्हे में जाने के लिए अब यह भीतरी तौर पर जागरूक हो चुका जनमानस कतई तैयार नहीं। उन्हें उनकी मानसिक शक्ति को क्रियान्वित करने के लिए एकीकृत करने वाला कोई ठोस विकल्प चाहिए, जो दिन-ब-दिन असहाय होती जा रही परिस्थितियों में इन्हीं के बीच से उभर सकता है।
प्रस्तुति --स्तुति नारायण
‘मेरे नाविक’:समीक्षा
ले चल वहां भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी-
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनीरे।
‘मेरे नाविक’ संबोधन से यह स्पष्ट है कि जिस नाव पर कवि बैठा है, वह उसकी अपनी नाव है और इस प्रकार नाविक भी उसका अपना नाविक है। नाव में डूबने से बचने का भाव है और नाविक में नाव किनारे ले जाने वाले व्यक्ति का। यह नाविक कवि की नाव किनारे ले जानेवाला उसका परम हितैषी और उसका अपना नाविक है। अपने उसी नाविक से कवि आत्मीयतापूर्ण ढंग से आग्रह करता है कि वह उसे ‘भुलावा देकर’ धीरे-धीरे वहां ले चले।
भुलावा इसी रूप में नाविक दे सकता है कि यह कवि से कहे कि नाव कहीं और नहीं किनारे जा रही है, मगर असल में जा रही हो नाव कहीं और ही। कवि के मन में किनारे जाने का आग्रह हो सकता है। नाविक को किनारे पर पहुंचा देने में ही अपने नाविक होने की सार्थकता दीख पड़ सकती है। दोनों के निवारणार्थ कवि सुझाव देता है कि किनारे ले चलने का बहाना करके ‘धीरे-धीरे’ (जिससे कवि को यह पता नहीं चले कि नाव किनारे नहीं कहीं और जा रही है) नाव वह वहां ले चले।
उस एकान्त स्थान में, जहां सागर की लहरी आकाश के कानों में गहरी और निश्छल प्रेम-कथा कह रही हो। लहरी उस निर्जन स्थान में धरती का कोलाहल छोड़कर आयी हो। सागर की लहरी किनारे को धरती से टकराकर, उसकी कठोरता से चोट खाकर ही लौट सकती है। चोट खाकर धरती को वह मर्म की बात कैसे कह सकती है? धरती अगर सुनाने योग्य न हो तो आकश ही उसकी बात सुन सकता है। आकाश इतना संवेदनशील है कि वह झुक आया है। उसने अपनी ऊंचाई छोड़ दी है। धरती ठोस है, आकाश के ठोस होने का प्रश्न नहीं उठता। लहरी स्वयं भी तरल है और उसके स्वर में भी संगीत है। इसी कारण किनारा छोड़ती लहरी वहां पहुंचती है जहां आकाश उसका ऐसा आत्मीय बन जाता है कि उसके, सिर्फ उसके कानों में वह मर्म की बात कह सकती है, कह रही होती है। (कवि स्वयं किनारे का, किनारा पाने का आकर्षण अस्वीकार नहीं करता। नौका किनारा पाने को ही चलती है। नाविक से आत्मीयता का आधार किनारा पाने का भावैक्य ही है। कवि का यह कैसा नाविक है, जो किनारे नहीं ले चलनेवाला होने के कारण ही उसका अपना नाविक है?)
जहां सांझ-सी जीवन-छाया
ढीले अपनी कोमल काया
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पांत घनी रे।
कवि का गन्तव्य लहरी और आकाश का वह मिलन-स्थल है, जहां सांझ जैसी जीवन-छाया अपनी कोमल काया ढीली करके तारक-पंक्तियों के रूप में अविरल अश्रुपात कर रही हो। छाया धुंधली होती है, सूक्ष्म होती है, यद्यपि उसका आधार स्थूल ही होता है। छाया स्वयं कितनी भी धुंधली क्यों न हो उसकी आंखों से टपके अश्रुकण तारकों की तरह ज्योतित और बहुमूल्य हैं। ताराओं की घनी पांत से अर्थ अविरल अश्रुपात है। आंसू किसी पूर्वानुभूत वेदना की स्मृति से ही छलक सकते हैं, चाहे वे आंसू सांझ के हों अथवा जीवन की छाया के। रो लेने से जी उसी प्रकार हल्का होता है जिस प्रकार किसी आत्मीय को मन की बात कह देने से। लहरी आकाश के कानों में मर्म की बात कहकर जो हल्का करती है और जीवन की छाया सांझ की तरह रो-धो कर। इतना निर्विवाद है कि स्थिति आनंद की है, शीतलता की है। दुःख के समय सुखद स्मृतियां दुःख को बढ़ा देती हैं, सुख के समय तो वे दुःखद स्मृतियां सहज ही टल जाती हैं।
(शांति और शीतलता को उस स्थिति में कौन-सा विलक्षण विगत अभाव है, जिसकी स्मृति आंसू की लड़ियां पिरोकर वेदना का हार गूंथने को बाध्य करती हैं?)
जिस गंभीर मधुर छाया में
विश्व चित्रपट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई
दुःख-सुख वाली सत्य बनी रे।
मधुरतम शीतलता के उस छाया लोक में, जहां परिवर्तनशील सृष्टि-चक्र की विशेषताओं के बीच से क्षणिकता लुप्त हो जाय और ईश्वरत्व ही जैसे सत्य बनकर प्रकट हो जाय, कवि नाविक से ले चलने को कहता है। धरती का सबकुछ कवि को सह्य है। दुःख-सुख, रूदन-हास सबको जैसे उस छाया-लोक में वह खींच ले जाना चाहता है। इन सब में ईश्वरत्व भी मधुर क्यों न हो, होगी वह छाया ही। विश्व कितना भी आकर्षक क्यों न हो उसमें वह मधुरता नहीं आ सकती जिसकी आकांक्षा कवि ने की है।
(ईश्वरीय विभूति के जिस सत्य रूप का साक्षात्कार वह छाया-लोक में करना चाहता है उससे इस विश्व के विभूषित होने की परिकल्पना में अवरोध क्या है?)
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहां सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से,
बिखराती हो ज्योती धनी रे।
आकाश और सागर-लहरी के परस्पर सुख-स्पर्श सम्मिलन की तरह जहां श्रम और विश्राम का स्नेह-संतुलन दीखे, वह है कवि का लक्ष्य-स्थल। सागर-लहरी में श्रम जैसी उत्सुकता, उत्फुल्लता, सहज उत्साह इत्यादि और आकाश में विश्राम की नीरवता और शान्ति। दोनों के सम्मिलन से तज्जनित पुलक-स्पन्दन की सृष्टि। शून्य और स्वर के संतुलन, क्लान्ति और विश्रान्ति के एकात्मभाव की शुभ-सृष्टि जहां हो चुकी हो, वहां उषा अपनी आंखों से घनी ज्योति की वृष्टि करती जैसे प्रकट हो।
उषा प्रकाश के आविर्भाव की प्रतीक है। प्रकाश से अंधकार का तिरोभाव लक्षित होता है। उषा केवल प्रकाश विकीर्ण नहीं करती, अमर-जागरण की स्वर्गिक चेतना भी साथ लाती है, जिससे प्रकाश की तीक्ष्णता जैसे कम हो जाती है। सृजन की बेला में अंधकार के विनाश का भाव खण्डित हो जाता है। बच जाता है जागरण, जिसकी व्याप्ति अंधकार तक होती है। जागरण अमर हो जाता है। प्रकाश और अंधकार की सीमा रेखा जहां मिट जाती है, वहां शाश्वत चेतना अमर ज्योति के रूप में सृष्टि का श्रृंगार बन जाती है।
प्रस्तुति --डाॅ रमेश नारायण
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी-
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनीरे।
‘मेरे नाविक’ संबोधन से यह स्पष्ट है कि जिस नाव पर कवि बैठा है, वह उसकी अपनी नाव है और इस प्रकार नाविक भी उसका अपना नाविक है। नाव में डूबने से बचने का भाव है और नाविक में नाव किनारे ले जाने वाले व्यक्ति का। यह नाविक कवि की नाव किनारे ले जानेवाला उसका परम हितैषी और उसका अपना नाविक है। अपने उसी नाविक से कवि आत्मीयतापूर्ण ढंग से आग्रह करता है कि वह उसे ‘भुलावा देकर’ धीरे-धीरे वहां ले चले।
भुलावा इसी रूप में नाविक दे सकता है कि यह कवि से कहे कि नाव कहीं और नहीं किनारे जा रही है, मगर असल में जा रही हो नाव कहीं और ही। कवि के मन में किनारे जाने का आग्रह हो सकता है। नाविक को किनारे पर पहुंचा देने में ही अपने नाविक होने की सार्थकता दीख पड़ सकती है। दोनों के निवारणार्थ कवि सुझाव देता है कि किनारे ले चलने का बहाना करके ‘धीरे-धीरे’ (जिससे कवि को यह पता नहीं चले कि नाव किनारे नहीं कहीं और जा रही है) नाव वह वहां ले चले।
उस एकान्त स्थान में, जहां सागर की लहरी आकाश के कानों में गहरी और निश्छल प्रेम-कथा कह रही हो। लहरी उस निर्जन स्थान में धरती का कोलाहल छोड़कर आयी हो। सागर की लहरी किनारे को धरती से टकराकर, उसकी कठोरता से चोट खाकर ही लौट सकती है। चोट खाकर धरती को वह मर्म की बात कैसे कह सकती है? धरती अगर सुनाने योग्य न हो तो आकश ही उसकी बात सुन सकता है। आकाश इतना संवेदनशील है कि वह झुक आया है। उसने अपनी ऊंचाई छोड़ दी है। धरती ठोस है, आकाश के ठोस होने का प्रश्न नहीं उठता। लहरी स्वयं भी तरल है और उसके स्वर में भी संगीत है। इसी कारण किनारा छोड़ती लहरी वहां पहुंचती है जहां आकाश उसका ऐसा आत्मीय बन जाता है कि उसके, सिर्फ उसके कानों में वह मर्म की बात कह सकती है, कह रही होती है। (कवि स्वयं किनारे का, किनारा पाने का आकर्षण अस्वीकार नहीं करता। नौका किनारा पाने को ही चलती है। नाविक से आत्मीयता का आधार किनारा पाने का भावैक्य ही है। कवि का यह कैसा नाविक है, जो किनारे नहीं ले चलनेवाला होने के कारण ही उसका अपना नाविक है?)
जहां सांझ-सी जीवन-छाया
ढीले अपनी कोमल काया
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पांत घनी रे।
कवि का गन्तव्य लहरी और आकाश का वह मिलन-स्थल है, जहां सांझ जैसी जीवन-छाया अपनी कोमल काया ढीली करके तारक-पंक्तियों के रूप में अविरल अश्रुपात कर रही हो। छाया धुंधली होती है, सूक्ष्म होती है, यद्यपि उसका आधार स्थूल ही होता है। छाया स्वयं कितनी भी धुंधली क्यों न हो उसकी आंखों से टपके अश्रुकण तारकों की तरह ज्योतित और बहुमूल्य हैं। ताराओं की घनी पांत से अर्थ अविरल अश्रुपात है। आंसू किसी पूर्वानुभूत वेदना की स्मृति से ही छलक सकते हैं, चाहे वे आंसू सांझ के हों अथवा जीवन की छाया के। रो लेने से जी उसी प्रकार हल्का होता है जिस प्रकार किसी आत्मीय को मन की बात कह देने से। लहरी आकाश के कानों में मर्म की बात कहकर जो हल्का करती है और जीवन की छाया सांझ की तरह रो-धो कर। इतना निर्विवाद है कि स्थिति आनंद की है, शीतलता की है। दुःख के समय सुखद स्मृतियां दुःख को बढ़ा देती हैं, सुख के समय तो वे दुःखद स्मृतियां सहज ही टल जाती हैं।
(शांति और शीतलता को उस स्थिति में कौन-सा विलक्षण विगत अभाव है, जिसकी स्मृति आंसू की लड़ियां पिरोकर वेदना का हार गूंथने को बाध्य करती हैं?)
जिस गंभीर मधुर छाया में
विश्व चित्रपट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई
दुःख-सुख वाली सत्य बनी रे।
मधुरतम शीतलता के उस छाया लोक में, जहां परिवर्तनशील सृष्टि-चक्र की विशेषताओं के बीच से क्षणिकता लुप्त हो जाय और ईश्वरत्व ही जैसे सत्य बनकर प्रकट हो जाय, कवि नाविक से ले चलने को कहता है। धरती का सबकुछ कवि को सह्य है। दुःख-सुख, रूदन-हास सबको जैसे उस छाया-लोक में वह खींच ले जाना चाहता है। इन सब में ईश्वरत्व भी मधुर क्यों न हो, होगी वह छाया ही। विश्व कितना भी आकर्षक क्यों न हो उसमें वह मधुरता नहीं आ सकती जिसकी आकांक्षा कवि ने की है।
(ईश्वरीय विभूति के जिस सत्य रूप का साक्षात्कार वह छाया-लोक में करना चाहता है उससे इस विश्व के विभूषित होने की परिकल्पना में अवरोध क्या है?)
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहां सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से,
बिखराती हो ज्योती धनी रे।
आकाश और सागर-लहरी के परस्पर सुख-स्पर्श सम्मिलन की तरह जहां श्रम और विश्राम का स्नेह-संतुलन दीखे, वह है कवि का लक्ष्य-स्थल। सागर-लहरी में श्रम जैसी उत्सुकता, उत्फुल्लता, सहज उत्साह इत्यादि और आकाश में विश्राम की नीरवता और शान्ति। दोनों के सम्मिलन से तज्जनित पुलक-स्पन्दन की सृष्टि। शून्य और स्वर के संतुलन, क्लान्ति और विश्रान्ति के एकात्मभाव की शुभ-सृष्टि जहां हो चुकी हो, वहां उषा अपनी आंखों से घनी ज्योति की वृष्टि करती जैसे प्रकट हो।
उषा प्रकाश के आविर्भाव की प्रतीक है। प्रकाश से अंधकार का तिरोभाव लक्षित होता है। उषा केवल प्रकाश विकीर्ण नहीं करती, अमर-जागरण की स्वर्गिक चेतना भी साथ लाती है, जिससे प्रकाश की तीक्ष्णता जैसे कम हो जाती है। सृजन की बेला में अंधकार के विनाश का भाव खण्डित हो जाता है। बच जाता है जागरण, जिसकी व्याप्ति अंधकार तक होती है। जागरण अमर हो जाता है। प्रकाश और अंधकार की सीमा रेखा जहां मिट जाती है, वहां शाश्वत चेतना अमर ज्योति के रूप में सृष्टि का श्रृंगार बन जाती है।
प्रस्तुति --डाॅ रमेश नारायण
Thursday, August 13, 2009
विवादों में हिन्दी अकादमी
विवादों में हिन्दी अकादमी दिल्ली सरकार ने हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद के लिए साहित्य के जिस प्रतिनिधि को मनोनीत किया है उसपर आरोप है कि वह मंचीय है, गंभीर नहीं। यही वह विवाद है जिसके कारण हिंदी के साहित्यकार दो खेमे में बंटे नजर आ रहे हैं। उल्लेखनीय है कि विगत दिनों हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर हास्य-व्यंग्य कवि प्रो. अशोक चक्रधर को नियुक्त करने के पश्चात यह मुद्दा जोर पकड़ता जा रहा है। इस विवाद के कारण निजी तौर पर हुई अपनी हानि से आहत डाॅ. अशोक चक्रधर ने वैसे तो इसपर कुछ भी कहने से इनकार किया, लेकिन साहित्य को मंचीय और गंभीर साहितय के रूप् में दो मांगों में बांटने की बात पर उन्होंने आपत्ति जताई और कहा कि लोक साहित्य और शास्त्रीय साहित्य, दो अलग-अलग साहित्य तो हमेशा लिखे गए किंतु किसी भी साहित्य को इस आधार पर अगंभीर कहना मेरे हिसाब से सही नहीं। जिस तरह लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत दो अलग-अलग अपना महत्व रखने वाली चीजें हैं, उसी तरह लोक साहित्य भी जनसामान्य के लिए सुलभ भाषा में लिखा गया साहित्य है। जिसका अपना अलग महत्व है। साहित्य अगर स्वस्थ है, मानवीयता के प्रति प्रतिबद्ध है। श्रोता, पाठक के विवेक और चेतना का विकास करने वाला है तो भाषा के माध्यम से अधिक-से-अधिक लोकजगत से जुड़ा होने को ही मैं उसकी सार्थकता मानता हूं। हास्य, व्यंग्य और आमफहम भाषा में जीवन मूल्यों की रक्षा करते हुए बड़ी बात कहकर समाज को स्वस्थ विचार और चिंतन प्रदान करना भी आसान नहीं। और इसे में साहित्य की जिम्मेदारी भी मानता हूं।मैंने साहित्य का गहन अध्ययन किया है। गजानन माधव मुक्तिबोध पर लिखी मेरी पुस्तकें आज भी विश्वविद्यालय स्तर पर मानक मानी जाती है। अनुभव प्रक्रिया से विवेकपूर्ण निष्कर्ष तक पहुंचकर उसे क्रियान्वयन की परिणति तक ले जाना ही मुक्तिबोध की सीख थी। मेरा भाषा एवं साहित्य के विकास व विस्तार के लिए लोकसाहित्य से जुड़ना भी इसी सीख से प्रभावित था। मेरा मानना है कि विवदों के बजाए विमर्श होना चाहिए कि साहित्य क्या है? कविता क्या है? उसकी कितनी धाराएं हैं? हर धारा में विद्यमान गंभीर और अगंभीर तत्व की पहचान किन आधारों पर हो? सभी पक्षों को जाने बिना निर्णायक बनना उचित नहीं। हास्य और व्यंग्य को दोयम दर्जे का साहित्य मानने वाले कुछ लोग हास्य कवि कहकर मेरी एकांगी छवि बनाना चाहते हैं। हास्य कवि कहते हुए उनके मन में कोई सम्मान नहीं होर्ताहिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद मानद है, इसके लिए कोई वेतन नहीं होता। क्रियान्वयन की जिम्मेदारी का पद भी सचिव का है। उपाध्यक्ष का काम दिशा-निर्देश और परामर्श देना है। हिंदी अकादमी का कार्य साहित्य का पोषण तथा हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार है। इन दिनों आगामी कार्यक्रमों की रूप रेखा बन रही है। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के तौर पर मैं सभी हिंदी सेवियों को साथ लेकर चलना चाहता हूं। अनुकूल माहौल में उचित दिशा में कार्य हो यही हिंदी के भविष्य के लिए अच्छा रहेगा।इस मुद्दे पर अन्य साहित्यकारों की टिप्पणियां कुछ इस प्रकार थीं- प्रसिद्ध कवि और समीक्षक डाॅ. बलदेव वंशी कहते हैं कि हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद के लिए चुने जाने का विरोध होना अशोक चक्रधर पर गैर जिम्मेदाराना अटैक है। भ्रष्ट या अयोग्य व्यक्ति हो सकता है, विधा भ्रष्ट नहीं होती। हास्य, व्यंग्य की रचना करने और मंच से जुड़े होने के आधार पर उन्हें अयोग्य बताकर उनके लिए निम्न शब्दों का प्रयोग करना अनुचित है। साहित्य का लोकोन्मुखी होना ही भारतीय सोच है, व्यक्तिवादी सोच तो पश्चिम से प्रेरित है। निराला, अज्ञेय, पंत, महादेवी नागार्जुन सभी मंच से जुड़े थे, क्या ये भ्रष्ट थे? अशोक चक्रधर लोकोन्मुखी कवि है, उन्होंने मुक्तिबोध पर भी काम किया है, जो बहुत ही गंभीर और कठिन था। वे प्रोफेसर रह चुके हैं, उन्होंने हिंदी के लिए बहुत काम किया है। और उनकी गंभीरता और विद्वत्ता पर सवाल नहीं उठना चाहिए उन्हें काम करने देना चाहिए।इस बारे में जानी मानी साहित्यकार सुनीता जैन कहती हैं कि अशोक चक्रधर का विरोध कर रहे लोगों से मेरा सैद्धांतिक स्तर पर विरोध है। अशोक जी को जिस पद के लिए चुना गया है वह प्रबंधन के लिए है, इसलिए नहीं कि वे कितने बड़े साहित्यकार हैं। ऐसे में इन आधारों पर उनके लिए खराब शब्दों का प्रयोग करना उन्हें विदूषक आदि बोलना बिल्कुल गलत है। विरोध या समर्थन का आधार यहां यह होना चाहिए कि व्यक्ति एकेडमी को सूचारू रूप से चलाने की योग्यता रखता है या नहीं। यू पी का संस्थान तो इससे भी बहुत बड़ा है और सोम ठाकुर भी मंचीय कवि हैं, लेकिन उनके नाम पर तो इन लोगों ने कोई विवाद नहीं मचाया था, फिर अब क्यों ?प्रसिद्ध साहित्यकार महीप सिंह ने कहा कि जिस व्यक्ति ने हिंदी की इतनी सेवा की है, पढ़ाते हुए जिसे वर्षों गुजर गए हैं उसके बारे में निम्न शब्दों का प्रयोग करना और इस पद के लिए अयोग्य बताना उचित नहीं है। अगर वह मंच से जुड़ा है और हास्य लिखता है सिर्फ इसलिए गंभीर साहित्यकार नही ंतो फिर दिनकर, निराला सबने मंच पर कविताएं पढ़ी, हरिशंकर परसाई ने अपने व्यंग्य के माध्यम से जो गंभीर संदेश दिए वे सभी जानते हैं। अशोक चक्रधर योग्य हैं, कुशल हैं, विवाद को शांत होना चाहिए। सफल कवि तथा आलोचक रामदरस मिश्र कहते हैं अशोक चक्रधर के पांडित्य पर हमें विश्वास है और काम के पश्चात ही कुछ कहा जा सकता है। उनकी विशेषता यह है कि वे जि समंच पर होते हैं उसके अनुकूल बोलते हैं। हास्य व्यंग्य के बीच वैसा ही बोलते हैं और गंभीर गोष्ठी में गंभीर वक्तव्य देते हैं। उन्होंने हिंदी को विश्व स्तर पर प्रचारित किया है। इसलिए पूर्वकल्पना के आधार पर विरोध करना ठीक नहीं है। काम देखने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है। उनकी क्षमता से हम आश्वस्त हैं।युवा कवि डाॅ. कुमार विश्वास ने कहा कि निराला ने जो कविता भावना के नियमन के लिए मुक्त छंद की बात की उसे कुछ लोगों ने छंद मुक्त करते हुए भावनाओं की जटिल और दुरूह अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया और इनकी रचनाएं जनता से स्वीकृति नहीं पा सकीं वे लोक के बीच नहीं रह पाए, लोकप्रिय नहीं हो पाए। तो मेरा मानना यह है कि अशोक चक्रधर विवाद के माध्यम से उनकी ही कुंठा बाहर आ रही है। जहां तक अशोक जी की बात है तो वे हिंदी को विश्व स्तर पर प्रचारित करने वाले और वर्षों प्रोफेसर रह चुके हैं। माइक्रोसाॅफ्ट को हिंदी में कनवर्ट करने वाले वहीं हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए विवाद मचाना अपने अंदर का दुराग्रह है। इस लिए पहले काम करने देना चाहिए पहले ही यह कहना कि वे अयोग्य हैं, पूर्वाग्रह है।
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