ले चल वहां भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी-
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनीरे।
‘मेरे नाविक’ संबोधन से यह स्पष्ट है कि जिस नाव पर कवि बैठा है, वह उसकी अपनी नाव है और इस प्रकार नाविक भी उसका अपना नाविक है। नाव में डूबने से बचने का भाव है और नाविक में नाव किनारे ले जाने वाले व्यक्ति का। यह नाविक कवि की नाव किनारे ले जानेवाला उसका परम हितैषी और उसका अपना नाविक है। अपने उसी नाविक से कवि आत्मीयतापूर्ण ढंग से आग्रह करता है कि वह उसे ‘भुलावा देकर’ धीरे-धीरे वहां ले चले।
भुलावा इसी रूप में नाविक दे सकता है कि यह कवि से कहे कि नाव कहीं और नहीं किनारे जा रही है, मगर असल में जा रही हो नाव कहीं और ही। कवि के मन में किनारे जाने का आग्रह हो सकता है। नाविक को किनारे पर पहुंचा देने में ही अपने नाविक होने की सार्थकता दीख पड़ सकती है। दोनों के निवारणार्थ कवि सुझाव देता है कि किनारे ले चलने का बहाना करके ‘धीरे-धीरे’ (जिससे कवि को यह पता नहीं चले कि नाव किनारे नहीं कहीं और जा रही है) नाव वह वहां ले चले।
उस एकान्त स्थान में, जहां सागर की लहरी आकाश के कानों में गहरी और निश्छल प्रेम-कथा कह रही हो। लहरी उस निर्जन स्थान में धरती का कोलाहल छोड़कर आयी हो। सागर की लहरी किनारे को धरती से टकराकर, उसकी कठोरता से चोट खाकर ही लौट सकती है। चोट खाकर धरती को वह मर्म की बात कैसे कह सकती है? धरती अगर सुनाने योग्य न हो तो आकश ही उसकी बात सुन सकता है। आकाश इतना संवेदनशील है कि वह झुक आया है। उसने अपनी ऊंचाई छोड़ दी है। धरती ठोस है, आकाश के ठोस होने का प्रश्न नहीं उठता। लहरी स्वयं भी तरल है और उसके स्वर में भी संगीत है। इसी कारण किनारा छोड़ती लहरी वहां पहुंचती है जहां आकाश उसका ऐसा आत्मीय बन जाता है कि उसके, सिर्फ उसके कानों में वह मर्म की बात कह सकती है, कह रही होती है। (कवि स्वयं किनारे का, किनारा पाने का आकर्षण अस्वीकार नहीं करता। नौका किनारा पाने को ही चलती है। नाविक से आत्मीयता का आधार किनारा पाने का भावैक्य ही है। कवि का यह कैसा नाविक है, जो किनारे नहीं ले चलनेवाला होने के कारण ही उसका अपना नाविक है?)
जहां सांझ-सी जीवन-छाया
ढीले अपनी कोमल काया
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पांत घनी रे।
कवि का गन्तव्य लहरी और आकाश का वह मिलन-स्थल है, जहां सांझ जैसी जीवन-छाया अपनी कोमल काया ढीली करके तारक-पंक्तियों के रूप में अविरल अश्रुपात कर रही हो। छाया धुंधली होती है, सूक्ष्म होती है, यद्यपि उसका आधार स्थूल ही होता है। छाया स्वयं कितनी भी धुंधली क्यों न हो उसकी आंखों से टपके अश्रुकण तारकों की तरह ज्योतित और बहुमूल्य हैं। ताराओं की घनी पांत से अर्थ अविरल अश्रुपात है। आंसू किसी पूर्वानुभूत वेदना की स्मृति से ही छलक सकते हैं, चाहे वे आंसू सांझ के हों अथवा जीवन की छाया के। रो लेने से जी उसी प्रकार हल्का होता है जिस प्रकार किसी आत्मीय को मन की बात कह देने से। लहरी आकाश के कानों में मर्म की बात कहकर जो हल्का करती है और जीवन की छाया सांझ की तरह रो-धो कर। इतना निर्विवाद है कि स्थिति आनंद की है, शीतलता की है। दुःख के समय सुखद स्मृतियां दुःख को बढ़ा देती हैं, सुख के समय तो वे दुःखद स्मृतियां सहज ही टल जाती हैं।
(शांति और शीतलता को उस स्थिति में कौन-सा विलक्षण विगत अभाव है, जिसकी स्मृति आंसू की लड़ियां पिरोकर वेदना का हार गूंथने को बाध्य करती हैं?)
जिस गंभीर मधुर छाया में
विश्व चित्रपट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई
दुःख-सुख वाली सत्य बनी रे।
मधुरतम शीतलता के उस छाया लोक में, जहां परिवर्तनशील सृष्टि-चक्र की विशेषताओं के बीच से क्षणिकता लुप्त हो जाय और ईश्वरत्व ही जैसे सत्य बनकर प्रकट हो जाय, कवि नाविक से ले चलने को कहता है। धरती का सबकुछ कवि को सह्य है। दुःख-सुख, रूदन-हास सबको जैसे उस छाया-लोक में वह खींच ले जाना चाहता है। इन सब में ईश्वरत्व भी मधुर क्यों न हो, होगी वह छाया ही। विश्व कितना भी आकर्षक क्यों न हो उसमें वह मधुरता नहीं आ सकती जिसकी आकांक्षा कवि ने की है।
(ईश्वरीय विभूति के जिस सत्य रूप का साक्षात्कार वह छाया-लोक में करना चाहता है उससे इस विश्व के विभूषित होने की परिकल्पना में अवरोध क्या है?)
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहां सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से,
बिखराती हो ज्योती धनी रे।
आकाश और सागर-लहरी के परस्पर सुख-स्पर्श सम्मिलन की तरह जहां श्रम और विश्राम का स्नेह-संतुलन दीखे, वह है कवि का लक्ष्य-स्थल। सागर-लहरी में श्रम जैसी उत्सुकता, उत्फुल्लता, सहज उत्साह इत्यादि और आकाश में विश्राम की नीरवता और शान्ति। दोनों के सम्मिलन से तज्जनित पुलक-स्पन्दन की सृष्टि। शून्य और स्वर के संतुलन, क्लान्ति और विश्रान्ति के एकात्मभाव की शुभ-सृष्टि जहां हो चुकी हो, वहां उषा अपनी आंखों से घनी ज्योति की वृष्टि करती जैसे प्रकट हो।
उषा प्रकाश के आविर्भाव की प्रतीक है। प्रकाश से अंधकार का तिरोभाव लक्षित होता है। उषा केवल प्रकाश विकीर्ण नहीं करती, अमर-जागरण की स्वर्गिक चेतना भी साथ लाती है, जिससे प्रकाश की तीक्ष्णता जैसे कम हो जाती है। सृजन की बेला में अंधकार के विनाश का भाव खण्डित हो जाता है। बच जाता है जागरण, जिसकी व्याप्ति अंधकार तक होती है। जागरण अमर हो जाता है। प्रकाश और अंधकार की सीमा रेखा जहां मिट जाती है, वहां शाश्वत चेतना अमर ज्योति के रूप में सृष्टि का श्रृंगार बन जाती है।
प्रस्तुति --डाॅ रमेश नारायण
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