Monday, August 17, 2009

भारतीय पूंजीवाद का साम्राज्यवादी मंजिल में प्रवेश

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश तरक्की कर रहा है, हम विकास की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इस तरक्की, इस विकास में राष्ट्र को हर खासो आम के सहयोग की जरूरत है। इस दिशा में खास लोग जैसे बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक, उद्योगपति, व्यापारी, नेता आदि का सहयोग कुछ ऐसा है कि वे पूरी शक्ति से अपनी तरक्की में लगे हैं, क्योंकि उनकी तरक्की ही देश की तरक्की मानी जाएगी और आम लोग उन खास लोगों की तरक्की के लिए अपना श्रमदान देने में जुटे हैं, क्योंकि इस एवज में उनकी रोज-रोज की आवश्यकता पूरी होती है। इतना तो साफ हो चुका है कि विकास का यह समीकरण एक तरफ करोड़पतियों को अरबपति और अरबपतियों को खरबपति बना रहा है तो दूसरी तरफ सामान्य जन की स्थिति दिन-ब-दिन बदत्तर करता जा रहा है।
विचारणीय बात यह है कि पूंजीवाद की दिशा में पहली दूसरी सीढ़ियां चढ़ता हुआ भारत आज साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश कर चुका है और यह सफर उसने देश के उस बड़े समूह के सहयोग से तय किया जिनके हाथ इस विकास से कुछ भी नहीं आना था, ना आया और ना ही आगे आने वाला है। यह भी निश्चित है कि इनके सहयोग के बिना तथाकथित विकास की यह यात्रा देश के लिए न कभी संभव थी न आगे होगी। इसलिए कहा जा सकता है कि पूंजीवादी विकास की इस बहुमंजिली इमारत की नींव, दिनोंदिन बदत्तर स्थिति को प्राप्त हो रहे आम जन ही है। अब इस पक्ष को भोला कहा जाए या बेवकूफ इसके लिए इसकी भीतरी सच्चाइयों पर गहरी निगाह डालनी होगी तभी उससे पैदा हुए सवालों का हल ढूंढ़ने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास संभव हो पाएगा।
औपनिवेशिक शासन के चक्र में फंसे भारत के तत्कालीन क्रांतिकारियों और विचारकों ने जनमानस में परिस्थितियों के प्रति जागरूकता लाकर उसी जन शक्ति की मदद से देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करा लिया। और तब शुरू हुआ राष्ट्र को जिन नीतियों पर चलना था उसके निर्माण का क्रम। यही नीतियां देश के विकास की दिशा तय करने वाली थी। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से शासन और सत्ता को प्रभावित करने वाले या यों कहें कि इससे लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा जब नीतियां निर्धारित की जा रही थीं तो सामान्य जनों के हितों से जुड़े कुछ ऐसे नीति और नियम जरूर बनाए गए जो जनसामान्य की आंखों के आगे भ्रम जाल फैलाने के लिए काफी थे शिक्षा का प्रसार, निम्न जातियों का उत्थान, औद्योगिक विकास, बैंकों व वित्तीय संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण आदि शुरू-शुरू के कुछ ऐसे मुद्दे थे जिससे आम जनता का भी सरोकार था। इससे भुलावे में आ गए आम जनों को यह नही समझ आ सका कि प्रत्यक्ष तौर पर उनके द्वारा उनके लिए बनी ये सरकार जो सुधारवादी नियम और जनकल्याण कारी योजनाएं तैयार कर रही है वह वास्तव में आगे चलकर भूस्वामियों को उद्योग और व्यापार की दिशा में ज्यादा से ज्यादा आगे बढ़ाने में ही सहायक होगा। भू एवं संसाधनों का राष्ट्रीयकरण करके राष्ट्र की भलाई के नाम पर उन हाथों में सौंपा जाएगा जिनका अर्थतंत्र एवं राजतंत्र में वर्चस्व है। इस तरह धीरे-धीरे सबकुछ ठीक होने के इंतजार में भोली जनता देश को अपनी श्रम शक्ति का सहयोग देती रही और खास समर्थ पूंजीपति वर्ग समय के साथ ज्यादा से ज्यादा संपत्तिवान और सामर्थ्यवान होता चलता गया। फिर सामान्य जन और पूंजीपति वर्ग के बीच की खाई दिनों दिन चौरी होती चली गई और अपनी बढ़ती पकड़ की बदौलत ये पूंजीपति वर्ग मेहनत कश्त आम जनता को हर स्तर पर अपनी स्थिति से समझौता करने के लिए मजबूर करता चला गया। सरकार द्वारा ऐसे बजट और नियम बनाए जाने लगे, जो टैक्स आदि के माध्यम से जनता की गाढ़ी कमाई से भरे सरकारी खजाने का मुंह इन पूंजीपतियों के लिए खोल सके। इतना ही नहीं देश की जरूरतों के नाम पर लिए गए कर्ज का लाभ तो ये पूंजीपति वर्ग उठाता लेकिन उसका बोझ मंहगाई के माध्यम से जनसामान्य के कंधों पर डाल दिया जाता।
अब सवाल यह उठता है कि सन् 1947 के पहले जिस एक मुद्दे पर संपूर्ण भारतीय जनमानस एक था कि ‘देश को अंग्रेजों से मुक्त कराना है’ वह मुद्दा ज्वलंत बने रहने के लिए किस वर्ग से सबसे अधिक शक्ति पा रहा था। या यों कहें कि देश का अंग्रेजों द्वारा दोहन किया जाना, कच्चा माल यहां से ले जाना और तैयार माल की यहां खपत करना व्यावाहारिक तौर पर जिसके लिए सबसे अधिक पीड़ादायक था, वे ज्यादा से ज्यादा जमीन पर मालिकाना हक रखने वाले लोग कहीं न कहीं से अपनी इस पीड़ा को आम मेहनतकश लोगों की देशभक्ति की भावना से जोड़कर उसका विस्तार कर रहे थे। आजादी का मुद्दा जहां गरीबी के कारण जलालत झेल रहे मजदूर, मेहनतकशों और छोटी जोत वाले किसानों के लिए उनकी रोजमर्रा की कठिनाइयों से छुटकारा पाने का सपना था वहीं बड़े जमींदारों के लिए अपनी संपत्ति, शक्ति और सामर्थ्य बढ़ाने के मार्ग को निष्कंटक करने का प्रयास। सपनों में डूबे आमजन ये नहीं समझ पाए कि आजादी के बहाने हो रहा सत्ता का यह हस्तांतरण उन्हें और भी गहरी नींद सुलाने के लिए है जिससे वे सपने भी ना देख पाएं। जो लोग वास्तविक स्थिति को समझ पा रहे थे उनकी पंूजीपतियों के आगे एक नहीं चली क्योंकि इस वर्ग को जहां औद्योगिक क्रांति बहुत पहले हो चुकी थी, उन समर्थ देशों का भीतरी सहयोग प्राप्त था, क्योंकि इनके स्वार्थ एक थे। अब नियम, कानून, सरकार सबकुछ वैसा ही होना था जो इनकी दिन दूनी रात-चैगुनी प्रगति में सहायक हो तथा सामान्य जन को भी लालच, भ्रम, उत्कोच डर आदि के सहारे इनकी दिशा और गति के अनुकूल बनाए रखे। देश के विकास का नेतृत्व करने वाला, प्रगति पथ पर अग्रसर यह पूंजीपति वर्ग प्रतिकूलताओं को दबाता तथा उसकी अनदेखी करता हुआ अब साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश कर चुका है। दुनिया के सामर्थ्यवान लोग अपने संप्रभुता संपन्न देशों की सीमा लांघकर एक मंच पर खड़े हैं लेकिन उनके बीच की प्रतिद्वंदिता बरकरार है। इनकी यह प्रतिद्वंदिता पूंजी का अधिक से अधिक केंद्रीकरण करके आर्थिक तौर पर सशक्त और समर्थ होने की है। वे विदेशी कंपनियों का हमलावर तरीके से अधिग्रहण करने और पूंजी की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए अपनी सामरिक शक्ति को बढ़ाने में लगे हैं तथा इसके साथ ही देश के अंदर दबी और शोषित मेहनतकश जनता में असंतोष के कारण पनपने वाले आक्रोश को कुचलने के लिए पुलिसिया तंत्र और अर्द्धसैनिक बलों को भी सशक्त और मजबूत रखना चाहते हैं।
यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि जीवन में अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुसार शक्ति और सामथ्र्य की वृद्धि तो किसी के लिए अनुचित नहीं बल्कि सहज और सामान्य है। किंतु कोई भी वृद्धि या बढ़ोत्तरी जबतक समाज के सबसे कमजोर तबके से लेकर ऊपर तक के लिए कल्याण कारी नहीं तब तक उसे उचित नहीं माना जा सकता है। किसी भी सामर्थ्यवान की प्रगति उसी मात्रा में उचित मानी जा सकती है जिस मात्रा में वह संपूर्ण समाज के लिए कल्याणकारी है। इसके उलट साम्राज्यवादी प्रतिद्वंदिता समाज के बहुसंख्यक वर्ग के आवश्यक आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए जिम्मेदार, देश की सरकार का भी अपने विकास के लिए हथियार की तरह उपयोग कर रही है। तथा आमजन की मेहनत और श्रम की नींव पर साम्राज्यवाद की बहुमंजिली इमारत खड़ी की जा रही है। इस नींव के हिलते ही यह इमारत गिरकर ध्वस्त हो सकती है लेकिन अब यह नींव हिलेगी तब जब मेहनतकश जनता को कोई ऐसा समर्थ पक्ष मिलेगा जो पूरे समाज के वास्तविक विकास के लिए कटिबद्ध दिखाई पड़ेगा। तवे से निकलकर चूल्हे में जाने के लिए अब यह भीतरी तौर पर जागरूक हो चुका जनमानस कतई तैयार नहीं। उन्हें उनकी मानसिक शक्ति को क्रियान्वित करने के लिए एकीकृत करने वाला कोई ठोस विकल्प चाहिए, जो दिन-ब-दिन असहाय होती जा रही परिस्थितियों में इन्हीं के बीच से उभर सकता है।

प्रस्तुति --स्तुति नारायण

No comments: