हम अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र घोषित करते हैं। आजादी और उसके बाद हुए देश की तरक्की पर गर्व महसूस करते हैं लेकिन आजादी के साठ साल बाद भी हम शिक्षा को मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं कर पाए हैं, यह दुर्भाग्य की बात है।
भारत को युवाओं का देश कहा जाता है। आकलन के मुताबिक देश की जनसंख्या का 54 प्रतिशत हिस्सा 35 वर्ष से कम आयु का है। यह बात इस लिहाज से देश के उज्जवल भविष्य का परिचायक मानी जाती है कि हमारे पास काम करने के लिए ज्यादा हाथ और दिमाग मौजूद हंै। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी 54 प्रतिशत में जनसंख्या का वह हिस्सा भी आता है, जिन्हें शिक्षा उपलब्ध नहीं। जिनका बचपन श्रम के बोझ तले दबा है तथा जिन्हें उनके सपनों के स्वच्छंद आकाश से वंचित रखा गया है।
क्या देश के ये नौनिहाल जिन्हें शिक्षा का बुनियादी हक भी प्राप्त नहीं है, बड़े हो कर अपने क्षेत्र में कुशलता प्राप्त कर सकेंगे। क्या इनके भीतर पल रही संपूर्ण संभावनाओं का विकास हो पाएगा। ये वे अहम सवाल हैं जो हमें देश के उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं होने दे सकते।
पिछले दिनों लोकसभा में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2008 पारित कर दिया गया। संविधान संशोधन 2002 द्वारा एक अनुच्छेद 21(अ) संविधान से जोड़ा गया। यह अनुच्छेद राज्य को 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के लिए जिम्मेदार बनाता है। जिस देश में साक्षरता दर 65 प्रतिशत हो और लगभग 30 करोड़ की आबादी निरक्षर हो उस देश के लिए संसद में पारित यह बिल काफी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन यह विडंबना ही कही जाए कि इस विधेयक पर लोकसभा में मात्र दो घंटे ही बहस हुई। राष्ट्रीय मीडिया में भी इसकी कोई विशेष चर्चा नहीं हुई। राष्ट्रीय महत्व के इस विधेयक पर छाई खामोशी वर्तमान समय में सामाजिक सरोकारों की गिरावट का ज्वलंत उदाहरण है।
जब भी शिक्षा को मौलिक अधिकार में शामिल किए जाने की बात आती है तो ये सवाल पैदा किए जाते हैं कि इतना पैसा कहां से आएगा? रूपयों के आवंटन में केंद्र या राज्य की भूमिका क्या होगी? केंद्र यह जिम्मेदारी राज्य पर डालता है तो राज्य केंद्र पर। यह भी सवाल उठाया जाता है कि क्या हमारा देश इतने बड़े पैमाने पर गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने में सक्षम है?
जहां तक पैसों की कमी का सवाल है तो हमारे देश के पास इतना पैसा है कि इसपर होने वाले पूरे व्यय को वहन कर सकता है। अगर कुछ कमी आती भी है तो सरकार शिक्षा के मद में लगाए। हर साल अरबों रूपयों का रक्षा समझौता किया जाता है। हथियारों पर इतना खर्च करने से बेहतर है कि उन्हें शिक्षा के मद में खर्च किया जाए। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की भी बात की जाए तो केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल, नवोदय विद्यालय जैसे बेहतर उदाहरण हमारे पास हैं। इनमें पढ़ने वाले बच्चों को तमाम सुविधाएं मिल रही हैं और ये प्राइवेट स्कूल के बच्चों को टक्कर भी दे रहे हैं। बस यह क्वालिटी एडुकेशन केंदीय कर्मचारियों जैसे कुछ चुनिंदा लोगो के लिए ना हो और शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल कर लिया जाए, सरकार से जनता की यही अपेक्षा है।
स्तुति नारायण
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